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Thursday 9 June 2011

"बाबा को पत्र"

आदरणीय बाबा रामदेव जी,
सादर नमस्कार.
दिल्ली के रामलीला मैदान में आपके शांतिप्रिय सत्याग्रह को जिस प्रकार अत्याचार पूर्ण ढंग से दमित किया गया, वह सारे देश ने देखा. सारे देश ने देखा कि किस प्रकार निद्रामग्न सत्याग्रही रातोरात दिल्ली पुलिस द्वारा बलात खदेड़े गये...... देखा कि किस प्रकार आप अपने भक्तों के कन्धों में बैठकर लोगों से शान्ति बनाए रखने का अपील कर रहे थे..... देश ने सब कुछ देखा और इसीलिए, प्रतिक्रया भी दी.... सारे देश में बवाल मच गया... बड़े नगरों से लेकर छोटे छोटे कस्बों तक में लोग आपके समर्थन और सरकार के अत्याचार का विरोध करते दीखे... सारे देश ने आपके भ्रष्टाचार विरोधी सत्याग्रह को हाथों हाथ लिया...

फिर आपके विलोपन पर चिंतित देश ने आपका प्रगटन देखा.... फिर आपके प्रमुख सहयोगी का भी प्रागट्य देखा.... अपने महानायकों को आंसू ढालते देखा....और उन आंसुओं के साथ अपने आशाओं और विश्वास को भी बहते देखा.... सारे देश ने बहुत कुछ देखा बाबा...., सहस्त्रों सूर्य के तेज को बदलियों के आवेग में खो जाते देखा.... फिर देश ने आपकी हुंकार सुनी... सशत्र सेना बनाने का दावा सुना..... देश में फिर बवाल मच गया...

बाबा, देशवासियों  की समझ में यह नहीं आ रहा कि दरहकीकत आप चाहते क्या हैं? सूरत बदलना चाहते हैं या केवल हंगामा खडा करना चाहते हैं? सूरत बदलने की राह तो नज़र नहीं आ रही, हंगामा ही उठता दिख रहा है देश भर में....  आपने रामलीला मैदान से देश को संबोधित करते हुए कहा आप क्रांतिकारी पैदा हुए, फिर आप गांधी वादी बने.... ...और अब फिर आप क्रान्ति की राह पर चल पड़े हैं.... विचारों में इतने अधिक विचलन का अर्थ आखिर क्या निकाला जाय? यही ना कि अनेक दशकों से पैर जमाये भ्रष्टाचार रूपी सशक्त राक्षस के विरुद्ध रणभेरी फूंकने वाले देव  के पास कोई ढंग की रणनीति भी नहीं है. यही ना?

बाबा, कहीं आप के मन में मोह तो नहीं जनम रहा? अपने द्वारा (ट्रस्ट के नाम ही सही) खड़ी की गयी हज़ारों करोड की संपत्ति का मोह.... कहीं आपको यह डर तो नहीं सता रहा कि जिस प्रकार सरकार ने आपको रामलीला मैदान से बेदखल कर दिया था उसी प्रकार कहीं हज़ारों करोड की संपत्ति से भी बेदखल ना कर दे.... इसीलिए आप के द्वारा अपनी और अपने संपत्ति की सुरक्षा के लिए सशत्र सेना तैयार करने की योजना बनायी जा रही है... बाबा यहाँ भी आपके विचारों में भटकाव ही दिखता है... कभी आप कहते हैं कि सशत्र नवयुवक अपने प्राणों की आहुती देने से नहीं चुकेंगे.... फिर आप कहते हैं कि हम किसी को काटेंगे नहीं लेकिन कटेंगे भी नहीं... मारेंगे नहीं लेकिन मरेंगे भी नहीं....मिटायेंगे नहीं लेकिन मिटेंगे भी नहीं... बाबा, सत्याग्रह स्थल पर निरीह सत्याग्रहियों जो आपके आवाहन पर दौड़े चले आये थे, को पुलिस की बर्बर हिंसा के बीच छोडकर आपके और आपके साथियों के पलायन ने देशवासियों के मन में वैसे भी अनेक प्रश्न खड़े कर दिए है, अब आपके द्वारा सशत्र सेना के गठन की घोषणा ने तो भ्रम भी पैदा कर दिए.... भ्रम... कि आप अपने ग्यारह हज़ार भावी सैनिकों के लिए हथियार कहाँ से लायेंगे? भारत सरकार तो आपको हथियार देने से रही, फिर? क्या पड़ोसी मुल्कों से? अपराधियों से?? आतंकवादियों से??? नक्सलियों से???? कहाँ से....???? और क्या राष्ट्र से पृथक व्यक्तिगत सेना गठित करने का विचार देश की संप्रभुता को चुनौती नहीं है? 

बाबा एक बात कहें आपसे, आप अपना अनशन छोड़ कर कुछ दिन योग में मन रमाईये... मन को शांत करने के उपाय करिये... फिर शांतचित्त होकर एक राह निर्धारित करिये... फिर चलिए... और चलिए तो ऐसे चलिए कि दुनिया चाहे इधर की उधर हो जाये पर आप अपने पथ से ना डिगें... आपके आँखों की चिंगारी द्रवीभूत न होने पाए.... क्योंकि राह से डिगने वाले सफल नहीं हुआ करते, इतिहास नहीं बनाया करते.... और आंसू बहाता नायक देश स्वीकार नहीं कर सकता.... आपके आंसूं देशवासियों की भावनाओं को क्षणिक रूप से उद्वेलित तो कर सकते हैं पर आपका स्थायी अनुगामी नहीं बना सकते... इसलिए भावनाओं को नहीं दिमाग को उद्वेलित करने का रास्ता अपनाईये.....  महात्मा गांधी, लाजपत राय, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर, सुभाष बोस, खुदीराम बोस ने एक बार जो राह अपने लिए निर्धारित की जीवन भर उसी राह में चले और बिना डिगे अपने प्राण भी माँ भारती के चरणों में न्योछावर कर दिए....

बाबा, सारा देश आपके पीछे चलने के लिए तैयार खडा है, पर उसके लिए पहले आपको अपना वैचारिक विचलन मिटाना होगा... अपने पीछे चलने को तैयार सवा अरब लोगों के लिए संविधान सम्मत पुख्ता राह निर्धारित करना होगा. और निश्चित रूप से वह रास्ता सत्य और अहिंसा का ही हो सकता है न कि सशत्र कदमताल का...
जयहिंद.
एक भारतवासी.   

Sunday 5 June 2011

“आखिर कब तक ?”


स्वतंत्र भारत के इतिहास में बहुत ही कम अवसर आये हैं जब लोगों को जात-पात, हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, उंच-नीच और दलित-फलित के विभाक्तिकारक अध्यायों से ऊपर उठाकर किसी बिंदु पर एकत्र करने का सद्प्रयास हुआ. ऐसा ही एक प्रयास कर रामदेव बाबा, ने भ्रष्टाचार, अनैतिकता, बे-ईमानी से ग्रस्त व्यवस्था के विरुद्ध भारत की जनता को जगा कर समग्र रूप से राष्ट्र के साथ खडा किया है.  

आज बाबा के लोकहितकारी सवालों से तिलमिलाई सरकार लोकतंत्र के मायने ही भूल बैठी है. रामलीला मैदान में अर्धरात्री रामदेव बाबा और हज़ारों सत्याग्रहियों का जिस बर्बरता से दमन किया गया, उसकी सफाई में चाहे जो दलील दी जाय... वह शत प्रतिशत अलोकतांत्रिक है, अत्याचार है, निंदनीय और प्रतिकारनीय है. यह दमनचक्र भारत की स्वतन्त्रता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है.... लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न है....और सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न माननीय भारत सरकार के तथाकथित आदरणीय मंत्रियों के संयमहीन उद्बोधनों ने भारत की संस्कृति पर लगा दिया है...
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दुनिया भर में आतंक का पर्याय बन चुके आतताई को जी कह कर संबोधित करने वाले अपनी वाणी की मर्यादा को लांघते हुए चीख चीख कर आज रामदेव को दो कौड़ी का झोलाछाप चोर और ठग बता रहे हैं..... अजीबो गरीब तर्क दिए जा रहे हैं...
० बाबा सन्यासी है...
० साधू की तरह रहें....
० शान्ति से योगासन सिखाएं
० राजनीति आसन न सिखाएं
० उनका क्षेत्र राजनीति नहीं है, और उन्हें अपने क्षेत्र में रहना चाहिए...
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इस तरह के अनर्गल प्रलाप करने वाले आदरणीय राजनीतिक पंडितों से यह बात कौन पूछे कि
० आचार्य चाणक्य तो शिक्षक थे, उन्हें क्या पडी थी देश की जनता को और राज सत्ताओं
  को एका का पाठ पढाने की, यमन आक्रान्ताओं के खिलाफ जगाने की ?
० राष्ट्रपिता महात्मा गांधी वकील थे चुपचाप वकालत करते, उन्हें क्या पडी थी लंगोटी
  पहन कर देश भर में स्वतंत्रता के लिए जन आंदोलन खडा करने की ?
० सुभाष चन्द्र बोस तो आई सी एस क्लिअर कर चुके थे, शान्ति से सरकार की नौकरी
  बजाते, उन्हें क्या पडी थी खानाबदोशों की तरह पूरी जिंदगी घूम कर दुनिया भर में
  अंग्रेजों के खिलाफ और भारत की स्वतन्त्रता के लिए समर्थन जुटाने की ?
० युवा भारत के स्वप्न दृष्टा राजीव गांधी तो पायलट थे उन्हें क्या आवश्यकता थी कि वे
  प्रधानमंत्री बनकर तकनीकी और संचार के क्षेत्र में सिद्धस्त भारत का आधार बने ? 

आज अगर एक सन्यासी जनगनमन की पीड़ा को स्वर देने का प्रयास कर रहा है तो वह क्यों गलत है? इस प्रकार के अनर्गल तर्क सरकार और सरकार में विराजमान तथाकथित विचारवान चिंतकों की विचार शून्यता को ही उजागर करती है. सच्चाई तो यह है कि आज देश की किसी भी मुद्दों पर सरकार का नियंत्रण नहीं रह गया है. या शायद सरकार अपना नियंत्रण रखना ही नहीं चाहती. फिर चाहे वह मुद्दा पेट्रोल, डीजल, कैरोसिन, रसोईगैस खाद्य पदार्थों की कीमतों का हो या समय समय पर घात लगाकर राष्ट्र की अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले आतताईयों का मुद्दा. सरकार हमेशा बेकफुट पर ही खड़ी नज़र आती है. अरे भाई जब आप किसी चीज पर नियंत्रण नहीं रख सकते तो सत्ता में बैठकर निरीह जनता को सताने का काम तो ना करों.  

मुख्य प्रश्न यह है कि क्या भारत के एक आम नागरिक को सरकार से सवाल करने या राष्ट्रहित के मुद्दे उठाने की स्वतन्त्रता नहीं है? और नहीं तो इस छद्मलोकशाही और बर्बर तानाशाही में फर्क क्या रह जाता है?   तर्क दिए जा रहे हैं कि अनुमति से अधिक लोग जमा थे.... अरे जब सरकार के मंत्रीगण रामदेव से चर्चा कर रहे थे तब वहाँ लोग नहीं थे क्या? जब उनके सवालों, जो वस्तुतः देश की जनता के ही सवालात है; का संतुष्टी जनक जवाब दे पाने में सरकार असफल हो गयी तभी क्यों अनुमति से अधिक उपस्थिति का भान हुआ ? तभी क्यों अनुमति निरस्त करने और मैदान खाली कराने का का ख़याल आया? और आया भी तो कब, आधीरात को जब बच्चे, बुजुर्ग, महिला सत्याग्रही सोये थे ? जिस पुलिस पर देश की आंतरिक सुरक्षा का भार होता है वह कैसे आधीरात को हज़ारों लोगों को आश्रयहीन बनाकर बर्बरता पूर्वक खदेड़ने का दुसकृत्य करती है?  निश्चित रूप से यह शर्म की बात है.

आज यह कहना अनुपयुक्त ना होगा कि लोकतंत्र अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए लोक की तरफ ही निगाह लगाए बैठी है, लोक को ही तमाम प्रकार की राजनीति से ऊपर उठकर भारत का भविष्य निर्धारित और सुरक्षित करने के लिए सोचना होगा...  भ्रष्टाचार और सड़ी गली व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर सरकार से पूछना होगा-  आखिर कब तक ?