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Sunday 5 June 2011

“आखिर कब तक ?”


स्वतंत्र भारत के इतिहास में बहुत ही कम अवसर आये हैं जब लोगों को जात-पात, हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, उंच-नीच और दलित-फलित के विभाक्तिकारक अध्यायों से ऊपर उठाकर किसी बिंदु पर एकत्र करने का सद्प्रयास हुआ. ऐसा ही एक प्रयास कर रामदेव बाबा, ने भ्रष्टाचार, अनैतिकता, बे-ईमानी से ग्रस्त व्यवस्था के विरुद्ध भारत की जनता को जगा कर समग्र रूप से राष्ट्र के साथ खडा किया है.  

आज बाबा के लोकहितकारी सवालों से तिलमिलाई सरकार लोकतंत्र के मायने ही भूल बैठी है. रामलीला मैदान में अर्धरात्री रामदेव बाबा और हज़ारों सत्याग्रहियों का जिस बर्बरता से दमन किया गया, उसकी सफाई में चाहे जो दलील दी जाय... वह शत प्रतिशत अलोकतांत्रिक है, अत्याचार है, निंदनीय और प्रतिकारनीय है. यह दमनचक्र भारत की स्वतन्त्रता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है.... लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न है....और सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न माननीय भारत सरकार के तथाकथित आदरणीय मंत्रियों के संयमहीन उद्बोधनों ने भारत की संस्कृति पर लगा दिया है...
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दुनिया भर में आतंक का पर्याय बन चुके आतताई को जी कह कर संबोधित करने वाले अपनी वाणी की मर्यादा को लांघते हुए चीख चीख कर आज रामदेव को दो कौड़ी का झोलाछाप चोर और ठग बता रहे हैं..... अजीबो गरीब तर्क दिए जा रहे हैं...
० बाबा सन्यासी है...
० साधू की तरह रहें....
० शान्ति से योगासन सिखाएं
० राजनीति आसन न सिखाएं
० उनका क्षेत्र राजनीति नहीं है, और उन्हें अपने क्षेत्र में रहना चाहिए...
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इस तरह के अनर्गल प्रलाप करने वाले आदरणीय राजनीतिक पंडितों से यह बात कौन पूछे कि
० आचार्य चाणक्य तो शिक्षक थे, उन्हें क्या पडी थी देश की जनता को और राज सत्ताओं
  को एका का पाठ पढाने की, यमन आक्रान्ताओं के खिलाफ जगाने की ?
० राष्ट्रपिता महात्मा गांधी वकील थे चुपचाप वकालत करते, उन्हें क्या पडी थी लंगोटी
  पहन कर देश भर में स्वतंत्रता के लिए जन आंदोलन खडा करने की ?
० सुभाष चन्द्र बोस तो आई सी एस क्लिअर कर चुके थे, शान्ति से सरकार की नौकरी
  बजाते, उन्हें क्या पडी थी खानाबदोशों की तरह पूरी जिंदगी घूम कर दुनिया भर में
  अंग्रेजों के खिलाफ और भारत की स्वतन्त्रता के लिए समर्थन जुटाने की ?
० युवा भारत के स्वप्न दृष्टा राजीव गांधी तो पायलट थे उन्हें क्या आवश्यकता थी कि वे
  प्रधानमंत्री बनकर तकनीकी और संचार के क्षेत्र में सिद्धस्त भारत का आधार बने ? 

आज अगर एक सन्यासी जनगनमन की पीड़ा को स्वर देने का प्रयास कर रहा है तो वह क्यों गलत है? इस प्रकार के अनर्गल तर्क सरकार और सरकार में विराजमान तथाकथित विचारवान चिंतकों की विचार शून्यता को ही उजागर करती है. सच्चाई तो यह है कि आज देश की किसी भी मुद्दों पर सरकार का नियंत्रण नहीं रह गया है. या शायद सरकार अपना नियंत्रण रखना ही नहीं चाहती. फिर चाहे वह मुद्दा पेट्रोल, डीजल, कैरोसिन, रसोईगैस खाद्य पदार्थों की कीमतों का हो या समय समय पर घात लगाकर राष्ट्र की अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले आतताईयों का मुद्दा. सरकार हमेशा बेकफुट पर ही खड़ी नज़र आती है. अरे भाई जब आप किसी चीज पर नियंत्रण नहीं रख सकते तो सत्ता में बैठकर निरीह जनता को सताने का काम तो ना करों.  

मुख्य प्रश्न यह है कि क्या भारत के एक आम नागरिक को सरकार से सवाल करने या राष्ट्रहित के मुद्दे उठाने की स्वतन्त्रता नहीं है? और नहीं तो इस छद्मलोकशाही और बर्बर तानाशाही में फर्क क्या रह जाता है?   तर्क दिए जा रहे हैं कि अनुमति से अधिक लोग जमा थे.... अरे जब सरकार के मंत्रीगण रामदेव से चर्चा कर रहे थे तब वहाँ लोग नहीं थे क्या? जब उनके सवालों, जो वस्तुतः देश की जनता के ही सवालात है; का संतुष्टी जनक जवाब दे पाने में सरकार असफल हो गयी तभी क्यों अनुमति से अधिक उपस्थिति का भान हुआ ? तभी क्यों अनुमति निरस्त करने और मैदान खाली कराने का का ख़याल आया? और आया भी तो कब, आधीरात को जब बच्चे, बुजुर्ग, महिला सत्याग्रही सोये थे ? जिस पुलिस पर देश की आंतरिक सुरक्षा का भार होता है वह कैसे आधीरात को हज़ारों लोगों को आश्रयहीन बनाकर बर्बरता पूर्वक खदेड़ने का दुसकृत्य करती है?  निश्चित रूप से यह शर्म की बात है.

आज यह कहना अनुपयुक्त ना होगा कि लोकतंत्र अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए लोक की तरफ ही निगाह लगाए बैठी है, लोक को ही तमाम प्रकार की राजनीति से ऊपर उठकर भारत का भविष्य निर्धारित और सुरक्षित करने के लिए सोचना होगा...  भ्रष्टाचार और सड़ी गली व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर सरकार से पूछना होगा-  आखिर कब तक ?