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Wednesday 18 July 2012

महीने भर की आय 500 रुपए

  • महंत घासीदास संग्रहालय
  • एक रुपए में भी नहीं आ रहे दर्शक

रायपुर, 1 जुलाई। महंत घासीदास संग्रहालय दर्शकों व पर्यटकों के लिए तरस गया है। व्यापक प्रचार प्रसार के अभाव में इस पुरातात्विक धरोहर ने सन्नाटे को अपना साथी बना लिया है। आंकड़े बोलते हैं कि प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति मात्र एक रुपए होने के बाद भी दिनभर में बमुश्किल दस से पन्द्रह दर्शक ही यहां आते हैं। यानी पूरे महीने यहां से सरकार को केवल 500 रुपए की आय होती है जबकि यह संग्रहालय राजधानी के मध्य में स्थित है। जहां तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। देश के दूसरे राज्यों में भी इसी स्तर के संग्रहालय हैं जिसे देखने पर्यटकों को भारी भरकम शुल्क अदाकर कतार लगानी पड़ती है। आखिर क्या वजह है कि महंत घासीदास संग्रहालय का आकर्षण नहीं बढ़ पाया है जबकि यह संग्रहालय छत्तीसगढ़ की संस्कृति को जानने शानदार व पुख्ता माध्यम है। विदेशी या देशी पर्यटकों की बात तो दूर प्रदेश के ही लोगों को इस संग्रहालय के बारे में जानकारी नहीं है। राजधानी के अधिकांश लोग इससे अंजान हंै। सौभाग्य की बात यह है कि बृजमोहन अग्रवाल के पर्यटन मंत्री बनने के बाद इस संग्रहालय को जीवन दान मिला। इस भवन का कायाकल्प किया गया। फिर भी व्यापक प्रचार प्रसार की कमी अभी भी बरकरार है। सबसे बड़ी चूक तो यह है कि संग्रहालय के मुख्य प्रवेश द्वार में ही संग्रहालय के संबंध में कोई जानकारी का उल्लेख नहीं है। बाहर लगे बोर्ड में केवल संचालनालय संस्कृति विभाग ही लिखा हुआ है इसमें संग्रहालय का कोई उल्लेख नहीं होने से भी लोगों को यह पता नहीं चल पाता है कि यहां संग्रहालय भी है। इसके अतिरिक्त प्रागैतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व की सामग्रियों के यहां होने से केवल इस विषय में रुचि रखने वाले पर्यटक एवं शोधार्थी ही आते हैं अगर इसे और अधिक रुचिकर स्वरूप प्रदान किया जाए तो पर्यटकों की संख्या में निश्चित ही वृद्धि होगी। इस बात को स्वीकारते हुए यहां के अधिकारियों का कहना है कि भविष्य में इसके लिए प्रयास किया जाएगा। वर्तमान में प्रदेश के कई स्थानों में शोध कार्य किए जा रहे हंै जिसमें काफी ऐतिहासिक सामग्रियों के प्राप्त होने की उम्मीद है जिससे पर्यटकों को आने वाले समय में बहुत सी नई चीजें देखने को मिलेंगी। संग्रहालय के रखरखाव के संबंध में अधिकारियों एवं  गाईड ने बताया कि मौसम एवं तापमान के अनुसार यहां विशेषज्ञों की टीम समय-समय पर सभी वस्तुओं में केमिकल का छिड़काव करती है जिससे सभी वस्तुएं सुरक्षित रहती है। केमिकल डालने की अवधि कभी 6 महीने की होती हे तो कभी 2-3 माह में ही डालना पड़ता है। विशेषज्ञों की टीम लगातार संग्रहालय का देखरेख करती है। मई माह में इस संग्रहालय परिसर में एक प्रशिक्षण शिविर का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है जिसमें बाहर से कलाकारों तथा अन्य प्रदेश के विशेषज्ञों द्वारा स्थानीय कलाकारों तथा विद्यार्थियों को विभिन्न कलाकृतियों के संबंध में जानकारी मिलती है और प्रशिक्षण भी दिया जाता है। महंत सर्वेश्वरदास ग्रंथालय जिसका संचालन संग्रहालय परिसर से ही किया जाता है वर्तमान में शहीद स्मारक भवन में स्थापित है यह इंटरनेट से जुड़े होने के कारण ई-ग्रंथालय है यहां इतिहास पुरातत्व सहित अन्य महत्वपूर्ण विषयों से संबंधित किताबें है। संग्रहालय सदैव कौतुहल एवं आकर्षण का केन्द्र रहे हैं और जब बात पुरातात्विक धरोहरों की हो तो आकर्षण और भी बढ़ जाता है। रायपुर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय पुरातात्विक धरोहरों को अपने में समेटे यह न केवल छत्तीसगढ़ वरन् मध्यप्रदेश का भी सर्वाधिक प्राचीन संग्रहालय है। छत्तीसगढ़ एवं महाकोशल अंचल की पुरातात्विक धरोहरों को सुरक्षित रखकर पीढिय़ों के ज्ञानवर्धन एवं मार्गदर्शन हेतु राजनांदगांव रियासत के तत्कालीन शासक महंत घासीदास द्वारा ब्रिटिश शासनकाल में एक अष्टकोणीय संग्रहालय का निर्माण कराया गया तथा यहां पुरातात्विक धरोहरों को संग्रहित किया जाने लगा। वर्तमान में यह स्थान 'महाकौशलÓ कला वीथिका के रुप में जाना जाता है। कालान्तर में संग्रहालय भवन छोटा पडऩे लगा तथा एक बड़े संग्रहालय भवन की आवश्यकता महसूस की गयी जिसके फलस्वरुप वर्तमान संग्रहालय भवन का निर्माण 1953 में संपन्न हुआ। इस भवन का लोकार्पण भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने किया। इसके निर्माण में महंत घासीदास की स्मृति में रानी ज्योति देवी ने एक लाख पचास हजार रुपये का दान दिया जिसके पश्चात् यह संग्रहालय भवन तथा सार्वजनिक संग्रहालय में 4324 गैर पुरावशेष तथा 12955 पुरावशेष सामग्रियां संग्रहित हैं। इस उत्तराभिमुख संग्रहालय के भूतल में तीन दीर्घायें हैं। पहले दीर्घा में एक काऊंटर है जहां केयर टेकर बैठता है। यहां से ही विभागीय प्रकाशनों एवं मूर्तियों का विक्रय होता है यहां चुने हुए चांदी तथा तांबे के सिक्के और राजपूत कलचुरीकालीन व मुगल बादशाहों के सिक्के आदि प्रदर्शित हैं। इसके साथ ही विभिन्न कालों से संबंधित छायाचित्रों को भी इसी दीर्घा  में संग्रहित किया गया है। दूसरे दीर्घा  में आदिमानव द्वारा प्रयुक्त पाषाण अ, तांबे के औजार, 1870 में बालाघाट के गुंगेटिया से प्राप्त कुल्हाड़ी तथा सब्बल रखे गए हैं। इसी दीर्घा में सिरपुर से उत्खनन में प्राप्त मूर्तियां, हाथी, घोड़ा, बैल, भैंस, हिरण  आदि की आकृतियां तथा मिट्टी के बर्तन भी प्रदर्शित हैं। यहां मिट्टी की मुहरें भी हैं इनमें वाराणसी के राजा घनदेव की मुहर ब्राम्हीलिपि में है जिसमें उनका नाम उत्कीर्ण हैं यह अतिमहत्वपूर्ण मानी जाती है। उत्खनन से प्राप्त लोहे के तराजू, फूंकनी, कैंची, चिमटी , संडसी आदि घरेलू सामान भी यहां प्रदर्शित हैं। कल्चुरी प्रतिमा दीर्घा में नायिकाओं एवं वास्तुखंड़ों को प्रदर्शित किया गया है। प्राचीन पाषाण  प्रतिमाओं में रतनपुर की चतुर्भुजी स्थानक विष्णु प्रतिमा, जैन अम्बिका देवी हैं वहीं सिरपुर से प्राप्त प्रतिमाएं रुद्री (धमतरी) से प्राप्त रुपेश्वर की प्रतिमा है। शिव, नटराज, अन्तरशायी विष्णु, जैन सर्वतोभदिका, सहस्त्र जिन चैत्यालय की अतिमहत्वपूर्ण कलाकृतियां भी यहां प्रदर्शित है। इस संग्रहालय में छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों से प्राप्त प्राचीन अभिलेख, दानपत्र, ताम्रपत्र, लेख और प्रशस्ति पत्र का भी बेहतरीन संग्रह है। शरभपुरी, सोमवंशीय, त्रिपुरी, शाखा के कलचुरी राजाओं के ताम्रपत्र तथा राजा महाशिवगुप्त का ताम्रपत्र लेख तथा प्रशस्ति पत्र का भी संग्रहालय के अभिलेख दीर्घा में महत्वपूर्ण स्थान है। इसी दीर्घा में बिलासपुर जिले के किरारी गांव के हीराबांधा तालाब से प्राप्त दूसरी शताब्दी का एकमात्र दुर्लभ काष्ठ स्तंभ लेख प्रदर्शित है जो संपूर्ण भारत में अपनी तरह का एकमात्र लेख है। प्रथम तल का प्रकृति इतिहास दीर्घा जीव जन्तुओं तथा पक्षियों के कारण बेहद लोकप्रिय है। यहां विविध प्रकार के पशु, पक्षी, सर्प आदि प्रदर्शित है। पक्षियों में करीब करीब 100 भारतीय पक्षियों की किस्में है जिनमें कौवा, मोर, मैना, तोता, बगुला, नीलकंठ आदि तथा मृत जीव जन्तु की ममी यहां रखी गई है। जानवरों में चीता, भालू, जंगली सुअर, लोमड़ी, हिरण आदि प्रदर्शित हैं। मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक होने के कारण यह दीर्घा इस संग्रहालय में बेहद लोकप्रिय है विद्यार्थी  तथा बच्चे तो जैसे इस दीर्घा में आने के बाद प्रकृति के इतिहास में खो जाते हैं। संग्रहालय के सबसे ऊपरी तल में जनजातियों से संबंधित वस्तुएं संग्रहित हैं। जनजाति दीर्घा में माडिय़ा, गोंड, कोरकू, उरांव और बंजारा जनजातियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले कपड़े, गहने, भांडे, अ, वाद्य एवं अन्य वस्तुएं प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त धनुष-बाण, चिडिय़ा मारने वाले गुलेलों आदि को भी संग्रहित किया गया है। यहां छत्तीसगढ़ की संस्कृति के जीवंत दर्शन होते हैं। इतिहास, प्रकृति, संस्कृति के लिहाज से यह संग्रहालय अत्यंत महत्वपूर्ण है। जहां जाकर ऐसा प्रतीत होता है मानों आदिमानवों या राजा-महाराजाओं के युग में आ गए हो पर वर्तमान में प्रदेश का सर्वाधिक प्राचीन संग्रहालय शासन-प्रशासन के साथ-साथ पर्यटकों की भी उपेक्षा का शिकार है प्रांगण में लगी प्राचीन मूर्तियां टूटती जा रही हैं वही उद्यानों तथा इस परिसर के विभिन्न स्थानों पर लगी कलाकृतियां भी जर्जर अवस्था में है जिसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। संस्कृति विभाग का कार्यालय इसी परिसर में स्थित है पर अधिकारियों की उदासीनता के चलते प्राचीन वस्तुएं नष्ट होती जा रही हैं इस ओर कभी किसी का ध्यान नहीं जाता। मूर्तियों को खुले में रखने तथा उचित देख-रेख के अभाव में चोरी होने तथा टूटने का भय हमेशा बना रहता है। इसके संबंध में अधिकारियों से बात करने पर जल्दी ही इस पर कांच लगवाने की बात कह रहे हैं। कहने को यहां ई-ग्रंथालय की स्थापना भी की गई है पर अपडेट न करने के कारण इस संग्रहालय तथा ग्रंथालय से संबंधित जानकारी नहीं मिल पाती है। कभी कभार ही किसी स्कूल अथवा कॉलेज की टीम शैक्षणिक भ्रमण हेतु आती है अत: यहां के अधिकारी तथा कर्मचारी  भी इसके रखरखाव के प्रति उदासीनता बरतते हैं। वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि शासन-प्रशासन द्वारा इस संग्रहालय को और भी अधिक रुचिकर बनाया जाए तथा प्राचीन मूर्तियों के रखरखाव के संबंध में उचित कार्रवाई  करते हुए बाहर रखी मूर्तियों को संरक्षित एवं सुरक्षित किया जाये। जनता को भी इसके संबंध में अधिकाधिक जानकारी उपलब्ध कराकर इस प्राचीन धरोहरों से युक्त संग्रहालय से अवगत कराने की आवश्यकता है।